“माटी” में फेंका हुआ दाना हज़ारो करोडो लोगो की भूख मिटाता रहा है -The grain satisfying the hunger of the People

इतिहास साक्षी है, “माटी” में फेंका हुआ दाना हज़ारो करोडो लोगो की भूख मिटाता रहा है (The grain satisfying the hunger of the People)- प्राकृतिक शुद्धता के साथ-साथ स्वस्थ भोजन के प्रत्येक आधुनिक मापदंडो पर खरा भी उतरता रहा है! मनुष्य ने अपनी संकीर्ण बुद्धि के संतुलन को बनाये रखने के लिए अमीरी-गरीबी की जो रेखा खींची है, उसको इस “माटी में दाना फेंको और रंग-बिरंगे, सुगन्धित, और अद्भुत स्वाद के भोजन उपलब्ध” ने धूमिल कर दिया है! कौन हो, कहाँ से आये हो? क्या जाति है? क्या वर्ग है? और क्या रंग है? कुछ फर्क नहीं पड़ता! “माटी-दाना-पानी” का संगम बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं को पूर्ण करने में समर्थ रहा है और वो भी समान रूप से! लेकिन?

आज के इस आधुनिक युग में इस सरलता को ना केवल जटिल अपितु असंभव बना दिया है! अब “माटी-दाना और पानी” के मध्य यूरिया या इससे मिलते-जुलते उत्पाद आ गए हैं! अब भोजन उत्पादन में इनका उपयोग इतना आवश्यक हो गया है जितना स्वं “माटी-दाना और पानी” का होना! वास्तव में यह एक गहन समस्या का आरम्भ है! आज के किसान के साथ-साथ प्रत्येक व्यक्ति का यह विश्वास स्थापित हो गया है कि यूरिया या यूरिया रूपी उत्पादों के बिना फसल – या यूं कहूँ के खाना ही संभव नहीं! अतः, इन अनावश्यक उत्पादों का आवश्यक हो जाना कैसे संभव हुआ?

grain satisfying the hunger

मुख्यत: दो कारण संभव प्रतीत होते है! प्रथम सरल है – पैसों का लालच! स्पष्ट है, अधिक फसल – अधिक पैसा! लेकिन इस पैसों के लालच ने मानव आँखों पर पट्टी बाँध दी है: इन दवाइयों के साथ उगाया गया भोजन पैसे तो लाएगा, मगर अनगिनत लोगों को अनगिनत बीमारियां भी तो लाएगा, उसका क्या? और जब धीरे-धीरे यह यूरिया रूपी दवाइयां लोगों का विश्वास बन जाएंगी, तब क्या?

दूसरा – काली शक्तियों को आप आँख बंद करके अनदेखा तो कर सकते है, मगर अपने मस्तिष्क से पूर्णतया समाप्त नहीं कर सकते! काली शक्तियां इस भू-पटल पर थी, हैं, और सर्वदा रहेंगी भी! काली शक्तियों से अभिप्राय उन लोगों से है जिनका उद्देश्य प्रकृति और सच्चाई के हमेशा विरूद्ध रहना है! मष्तिष्क की इन्द्रीओं को खोलोगे तो आश्चर्याचकित रह जाओगे की जो मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता थी वो सिर्फ “माटी-दाना-पानी” के मिश्रण से पूरी हो जाती थी, अब वो ही आवश्यकता, यूरिया जैसे मानव निर्मित पदार्थों के बिना संभव ही प्रतीत नहीं होती! अब एक आम आदमी का विश्वास जितना “माटी, दाना और पानी” पर है उतना ही यूरिया पर भी है! अब यूरिया होगा तो फसल उगेगी, और यूरिया तब आएगा जब पैसा होगा, कम पैसा – कम गुणवत्ता वाला यूरिया, कम फसल – अधिक पैसा अधिक गुणवत्ता वाला यूरिया और अधिक फसल! तो अधिक किसको नहीं चाहिए?

इस अधिकता की मारा-मारी ने लोगों को भूखे मरने पर विवश तो कर ही दिया है, और इससे भी आश्चर्य वाली बात यह है कि माटी की अपनी प्राकृतिक शक्ति को भी क्षीण-क्षीण कर दिया है! मातृ रुपी भूमि के सीने पर वो ज़हरीली दवाइयों के तीर गाड़े है, जिनसे उनके “ज़र्रे-ज़र्रे” में ज़हर विद्मान है! आपके लालच ने उस दिव्य उपहार को नष्ट कर दिया है जो आपके अस्तित्व का मूल है!

आपने, प्राकृतिक विधा का वो विकल्प ढूंढा है जिसका नियंत्रण काली शक्तियों के हाथों में है! अपनी इच्छा के अनुसार, अब वो जैसा भी उत्पाद आपको देना चाहें, आप लेंगे, बल्कि खरीदेंगे! क्योंकि आपका सम्पूर्ण विश्वास उसमे निहित है! आज वो उनका उत्पाद काम कर रहा है, अगर कल वो काम करना बंद कर दे तो?

मिटाता रहा है वो दाना, माटी में छिपा हुआ,
हज़ारों करोड़ों भूखी आँखों की प्यास बुझाता।


जीवन की अनमोल राहों पर वो बिखरा हुआ,
अजनबी दिलों की आवाज़ को अपना बनाता।

उस दाने की अहमियत नहीं जानते हम,
पर वो अनजान आँखों की प्यास बुझाता।


जीवन की अनमोल राहों पर वो बिखरा हुआ,
अजनबी दिलों की आवाज़ को अपना बनाता।

ज़िन्दगी की धूप में वो छाया हुआ,
अजनबी दिलों की आवाज़ को अपना बनाता।

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